रविवार, 30 अक्तूबर 2011
झरना: खो गया -----
झरना: खो गया -----: निकल रहा था अपने घर से दिल में एक अजब की चाह थी बल्लियाँ उछल रहा था किसी कोने में सोचा आज मिलूँगा उससे , कह दुँगा वो सब जो सोच रखा ...
खो गया -----
निकल रहा था अपने घर से
दिल में एक अजब की चाह थी
बल्लियाँ उछल रहा था किसी कोने में
सोचा आज मिलूँगा उससे , कह दुँगा वो सब जो सोच रखा है
सारी ख्वाईशें , सारे अरमान पूरे होंगे ,
आईने में खुद को निहारा एक बार
पर यह क्या ? मुझे गुस्सा आ गया
खुद पर नही , अपने पैदा करने वाले पर
एक ढंग के कपडे भी नही दे सकते ----
क्यों बेटा कहकर पुकारते हैं ---- ऐसे माँ -बाप से भला तो अनाथ बेहतर होता --
और ना जाने क्या-क्या बडबडाता मै निकल गया
अच्छा - खासा मूड था , पर बदल गया
पार्क में इंतजार कर रहा था मै
पर अपने कपडों को देख -देख बिफर रहा था मै
बाबूजी १० रुपये देना , माँ के लिये दवा लाना है
मै झिडकता पर बच्चे का हाल देखकर गुस्सा
फुर्र हो गया ------
१० रुपये उसे थमा , मै कही खो गया ---
बुधवार, 28 सितंबर 2011
राहुल राज की पुण्यतिथि पर
थी धूल से धूसरित धरा
थी क्षीण होती रश्मियाँ
थी प्रचंड आग में जली
राष्ट्रवाद की बेलियाँ
था राष्ट्र तब दरक रहा
स्वयं की फूलती थी बेलियाँ
क्षेत्रवाद के किले में कैद होती बलियाँ
रो रहा था भगत
ना थम रही थी हिचकियाँ
एक कोने में पडी थी
आजाद की वो गोलियाँ
ना गर्म खूँ था यहाँ अब
ना खीचती थी पेशियाँ
माँ भारती के मौत पे
हो रही थी अठखेलियाँ
स्वार्थ के इस खेल में
था एक बाकां जवां
जो राष्ट्र की अवधारणा का
नव-नवीन इतिहास बना
स्वयं टूटने के दंश से
वह हमें बचा गया
रक्त की स्याही लगाकर
वह हमें जगा गया
थी वो राष्ट्रभक्ति की मिसाल
या एक राष्ट्र पर था वो सवाल
पूछता है हृदय सदा
पर अभी भी डरा-डरा
है धूल से धूसरित धरा
है क्षीण होती रश्मियाँ
है प्रचंड आग में जली
राष्ट्रवाद की बेलियाँ
थी क्षीण होती रश्मियाँ
थी प्रचंड आग में जली
राष्ट्रवाद की बेलियाँ
था राष्ट्र तब दरक रहा
स्वयं की फूलती थी बेलियाँ
क्षेत्रवाद के किले में कैद होती बलियाँ
रो रहा था भगत
ना थम रही थी हिचकियाँ
एक कोने में पडी थी
आजाद की वो गोलियाँ
ना गर्म खूँ था यहाँ अब
ना खीचती थी पेशियाँ
माँ भारती के मौत पे
हो रही थी अठखेलियाँ
स्वार्थ के इस खेल में
था एक बाकां जवां
जो राष्ट्र की अवधारणा का
नव-नवीन इतिहास बना
स्वयं टूटने के दंश से
वह हमें बचा गया
रक्त की स्याही लगाकर
वह हमें जगा गया
थी वो राष्ट्रभक्ति की मिसाल
या एक राष्ट्र पर था वो सवाल
पूछता है हृदय सदा
पर अभी भी डरा-डरा
है धूल से धूसरित धरा
है क्षीण होती रश्मियाँ
है प्रचंड आग में जली
राष्ट्रवाद की बेलियाँ
रविवार, 4 सितंबर 2011
भगवान मुझे इक साली दे
भगवान मुझे इक साली दे
गोरी दे या काली दे
भगवान मुझे इक साली दे
सीधी दे , नखरेवाली दे
या गरम चाय की प्याली दे
भगवान मुझे इक साली दे
ससुराल मै जब भी जाता हुँ
गुमसुम ही बैठा रहता हुँ
ना करे कोई मिन्नते , ना ही कोई गाली दे
भगवान मुझे इक साली दे
जब मिलते हैं दोस्त-यार
होती हैं महफिलें तैयार
करते हैं वो बाते उस पल
साली जैसी दिलवाली के
भगवान मुझे इक साली दे
हे। प्रभु । ईश्वर मेरे
कष्ट मुझे दे-दे बहुतेरे
पर इस सूखे संसार में
मुझे साली की भरी थाली दे
भगवान मुझे इक साली दे ।
रविवार, 28 अगस्त 2011
मोहब्बत भरी जिंदगी
रश्क हे जिन्दगी को बनाया किसने
महकते हुये आंचल से सजाया किसने
हरेक कदम पे जिन्दगी मे खुशियाँ बिखेर दी
पर गम के सायों से रुलाया किसने
जिंदगी में मोहब्बत भरो खुदा - ए - दीन की तरह
जिंदगी में फितरत भरो फिल्म के सीन की तरह
जिंदगी को जिओगे ऐसे तो मज़ा आयेगा
बाद में रुसखत करो तमाशेबीन की तरह
जिंदगी के लम्हों को यूँ दिल में बसा लो
आसमाँ से मानो तुम सुरमा चुरा लो
वक्त की नज़ाकत को समझकर यारों
जिंदगी को मोहब्बत की दुनिया बना लो
आते हैं सपनो मे बख्शीशें हज़ार
होती है अक्सर हसीनो से आँखे चार
सपने तो टूटते हैं अक्सर यारों
सपनो को जिंदगी का मकसद बना लो
तुम पाओगे की जिंदगी जहीन हो गयी
खुशी के आईने में आमीन हो गयी
गम की आहट ना आयेगी तेरे दर पे कभी
हर मोड पे हर लम्हा रंगीन हो गयी ।
महकते हुये आंचल से सजाया किसने
हरेक कदम पे जिन्दगी मे खुशियाँ बिखेर दी
पर गम के सायों से रुलाया किसने
जिंदगी में मोहब्बत भरो खुदा - ए - दीन की तरह
जिंदगी में फितरत भरो फिल्म के सीन की तरह
जिंदगी को जिओगे ऐसे तो मज़ा आयेगा
बाद में रुसखत करो तमाशेबीन की तरह
जिंदगी के लम्हों को यूँ दिल में बसा लो
आसमाँ से मानो तुम सुरमा चुरा लो
वक्त की नज़ाकत को समझकर यारों
जिंदगी को मोहब्बत की दुनिया बना लो
आते हैं सपनो मे बख्शीशें हज़ार
होती है अक्सर हसीनो से आँखे चार
सपने तो टूटते हैं अक्सर यारों
सपनो को जिंदगी का मकसद बना लो
तुम पाओगे की जिंदगी जहीन हो गयी
खुशी के आईने में आमीन हो गयी
गम की आहट ना आयेगी तेरे दर पे कभी
हर मोड पे हर लम्हा रंगीन हो गयी ।
शुक्रवार, 12 अगस्त 2011
देख तुझे ओ । प्रियंका --------
व्यथित हृदय के मरूक्षेत्र में जन्मा एक
बीज प्रेम का
हर्षित हुई प्रकृति धरा तब
सौभाग्य था मानव जीवन का
चंचल मन स्वप्न में लीन हुआ
चहक उठा अंग-अंग तन का
देख तुझे ओ । प्रियंका
नयनों के सुरमयी क्षेत्र कामुकता का
प्रवाह हुआ
हृदय के झंकृत तारों में व्याकुलता का
आभास हुआ
सुगंधित हो उठी सांसे
ढीला पड गया बंधन मन का
देख तुझे ओ । प्रियंका
बीज प्रेम का
हर्षित हुई प्रकृति धरा तब
सौभाग्य था मानव जीवन का
चंचल मन स्वप्न में लीन हुआ
चहक उठा अंग-अंग तन का
देख तुझे ओ । प्रियंका
नयनों के सुरमयी क्षेत्र कामुकता का
प्रवाह हुआ
हृदय के झंकृत तारों में व्याकुलता का
आभास हुआ
सुगंधित हो उठी सांसे
ढीला पड गया बंधन मन का
देख तुझे ओ । प्रियंका
व्यथित हृदय में तुम प्रेम
आभास हो
अमावस्या में तुम प्रकाश हो
मरणशय्या पर अंतिम सांस हो
चुभता है एक शुल हमेशा
कब आयेगी घडी मिलन का
देख तुझे ओ । प्रियंका
ऐ । नौजवानों
है देश आज मंझधार में ---
है काल में कलवित हुआ
भ्रष्ट शासन के विपद के
आङ में कुंठित हुआ
निज जहाँ है ये हमारा
प्राण प्यारा था सदा
चंद लोभियों के दहकती
गाँठ में उलझा हुआ
शायद भ्रम था हमारा
स्वयं शासन सुयोग का
पर बन गया सपना हमारा
वस्तु - दानवों के भोग का
बेच डाला इस जमीं को
चंद डालरों के मोल में
कर डाला सौदा हमारा
शादी की अपनी ढोल में
भर उठा उनका खजाना
पर हम दहलते रहे
कभी बारुद की ढेर पर तो
कभी जठराग्नि में जलते रहे
जाग जाओ ऐ। दीवानो
इस राष्ट्र के ऐ । नौजवानो
नव-विहान , नवलय का
वक्त आज आन पडा
है देश आज मंझधार में
बस तुम्हे पुकार रहा ।
मनीष कुमार वत्स "माही"
है काल में कलवित हुआ
भ्रष्ट शासन के विपद के
आङ में कुंठित हुआ
निज जहाँ है ये हमारा
प्राण प्यारा था सदा
चंद लोभियों के दहकती
गाँठ में उलझा हुआ
शायद भ्रम था हमारा
स्वयं शासन सुयोग का
पर बन गया सपना हमारा
वस्तु - दानवों के भोग का
बेच डाला इस जमीं को
चंद डालरों के मोल में
कर डाला सौदा हमारा
शादी की अपनी ढोल में
भर उठा उनका खजाना
पर हम दहलते रहे
कभी बारुद की ढेर पर तो
कभी जठराग्नि में जलते रहे
जाग जाओ ऐ। दीवानो
इस राष्ट्र के ऐ । नौजवानो
नव-विहान , नवलय का
वक्त आज आन पडा
है देश आज मंझधार में
बस तुम्हे पुकार रहा ।
मनीष कुमार वत्स "माही"
सोमवार, 1 अगस्त 2011
१९ बसंत
तेज रवि की रश्मि में खोली थी मैने आँखे
देख धरा की स्वर्णिम आभा
खिल गयी थी मेरी बाँछे
बैठ प्रकृति की आँचल में
पल-पल का प्यार लिया
कभी-हँसकर तो कभी रोकर मैने
उन्नीस बसंत गुजार दिया
सुख-दुख है जीवन की माया
कहीं धुप तो कहीं छाया
क्रोध - घृणा से अनगढ मेल को
जीवन से दुत्कार दिया
कभी हँसकर तो कभी----
तृण-तृण को लडते देखा
स्वजनो को मरते देखा
हिंसा पर प्रतिहिंसा
बंधुओं को करते देखा
हृदय की व्यथित तरंगो को
प्रेम में आत्मसात किया
कभी हँसकर तो कभी----
मोह , इच्छा या लिप्सा लालसा
मन ने बनाया आत्मा को काल सा
मृगनयनी या फूलकुमारी
हृदय बसी थी राजकुमारी
मन के कामुक उमंगो को
कल्पना का उडान दिया
कभी हँसकर तो कभी -----
अमूल्य जीवन है नश्वर फिर भी
अमर रहुँगा मै मर कर भी
सह संताप हर पल , हर दम
प्रगति पथ पर रहुँगा फिर भी
उदित सुर्य की भाँति मैने
जीवन को प्रकाश दिया
कभी हँसकर तो कभी रोकर------
हँसता हुँ कि जीवन पाया
रोता हुँ कि जग को नहीं हँसाया
हँसने रोने के अजब मेल में
जीवन को अपने बाँध लिया
कभी हँसकर तो कभी रोकर------
देख धरा की स्वर्णिम आभा
खिल गयी थी मेरी बाँछे
बैठ प्रकृति की आँचल में
पल-पल का प्यार लिया
कभी-हँसकर तो कभी रोकर मैने
उन्नीस बसंत गुजार दिया
सुख-दुख है जीवन की माया
कहीं धुप तो कहीं छाया
क्रोध - घृणा से अनगढ मेल को
जीवन से दुत्कार दिया
कभी हँसकर तो कभी----
तृण-तृण को लडते देखा
स्वजनो को मरते देखा
हिंसा पर प्रतिहिंसा
बंधुओं को करते देखा
हृदय की व्यथित तरंगो को
प्रेम में आत्मसात किया
कभी हँसकर तो कभी----
मोह , इच्छा या लिप्सा लालसा
मन ने बनाया आत्मा को काल सा
मृगनयनी या फूलकुमारी
हृदय बसी थी राजकुमारी
मन के कामुक उमंगो को
कल्पना का उडान दिया
कभी हँसकर तो कभी -----
अमूल्य जीवन है नश्वर फिर भी
अमर रहुँगा मै मर कर भी
सह संताप हर पल , हर दम
प्रगति पथ पर रहुँगा फिर भी
उदित सुर्य की भाँति मैने
जीवन को प्रकाश दिया
कभी हँसकर तो कभी रोकर------
हँसता हुँ कि जीवन पाया
रोता हुँ कि जग को नहीं हँसाया
हँसने रोने के अजब मेल में
जीवन को अपने बाँध लिया
कभी हँसकर तो कभी रोकर------
रविवार, 31 जुलाई 2011
ई सरकारी जमीन हई
---------- रात भर मै झुमरी काकी के बारे में सोचता रहा ---- आखिर क्यों भगवान इस तरह की लम्बी उम्र देता है जिसमें इंसान को रोटी तक के लिये तरसना पडे , पता नही क्यों मैं झुमरी काकी से भावनात्मक रुप से बंधने लगा था , शायद रात के वक्त हर आदमी के साथ ऐसा होता है , दिन में जो भी उसने बुरा देखा या सुना हो उस पर मंथन करना लाजिमी होता है ,एक सपने जैसी अनुभूति होती है इसीलिये तो सुबह जब मै उठा तो रात के सारे वाकये भूल चुका था , झुमरी काकी की सारी बातें जेहन से धुंधली पड चुकी थी , मैने नित्यक्रिया से छुटकारा पाया और खेतों की तरफ घूमने का प्रोग्राम बनाया , दरहसल एक लम्बे अरसे के बाद कभी-कभी गाँव जाता हूँ सो सुबह के प्रकृति के दीदार से भला कौन चुकना चाहता है , निकल पडा -- सोचा सैर -सपाटा भी हो जायेगा और खेतों को भी देख लूँगा , अभी आहर के निकट पहुँचा होउन्गा कि किसी के जुबान से भद्दी -भद्दी गालियों का संगीतमय उच्चारण सुनकर ठिठक गया---- सामने देखा तो गाँव के मुखिया का लडका अपने खेत मे खडा जुबान से काँटे निकाल रहा है , था ही वह उदंग्गड बचपन से ही मेरे साथ ही पढता था , मास्टर जी को भी नही छोडता था , मैने वहाँ रुकना उचित नही समझा और अपने कदम बढा दिये पर-------सामने सुकर लेकर आती वृद्धा को देखकर ठिठक जाना पडा ---- निसंदेह यह झुमरी काकी थी , रात की बातें फिर से ताज़ा हो गयी ---- मन किया कि मुखिया के बेटे को तमाचा जड दूँ पर हिम्मत नही हुई , सोचा क्यों बेबजह का पंगा लूं ,पर असहाय झुमरी काकी के लिये कूछ करना चाह रहा था , मैं भी तो असहाय ही था ----- इसी उधेडबुन में फँसा कभी अपने - आपको तो कभी मुखिया के बेटे को कोस रहा था कि एक कडकती आवाज सुनकर चौंक गया-------वास्तव में आवाज में बुलन्दी थी----- ई तोहर बाप के खेत नय हऔ कि तो हमरा गारि देमही ------ ई पर सरकार के अधिकार है ----- और हमनी भी भोटवा दे हियै------- ई गरमज़रुआ खेत हकै तौ कब्जा कर लिहनी तो कि------( ये तुम्हारा बाप का खेत नहीं है , जो तुम मुझे गाली दे रहे हो , इस पर सरकार का अधिकार है , और हम लोग भी वोट देते हैं , ये तो सरकारी जमीन है, तुम लोग कब्जा कर लिय हो तो क्या?) झुमरी काकी के मुँह से वोट का महत्व और अपने अधिकार की बात सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया , उनकी जानकारी की कला से मै हैरान भी था----- मै उनसे बात करने को उत्सुक हो गया-----पर सामने खडे मुखिया के लडके को देखकर अपने कदम बढा लिये------शेष अगले भाग में-------
शनिवार, 30 जुलाई 2011
झुमरी काकी १२५ साल की-----------
दुबला-पतला शरीर, चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ ,चलती है ऐसे झुककर मानो पुरे संसार का बोझ उसके कांधे पर रखा है , पर आवाज बडा ही गर्वीला और कडकदार , अभी परसों ही रामजीतन के बेटे को डाँट रही थी , डाँट तो उसे रही थी परन्तु हलक सुनने वालों के सूख रहे थे , कितनी उमर हो गयी होगी इनकी मैने वहाँ खडे एक रमेसर चचा से पुछा , बेटा हमनी के कि पता , ई तो तोर बबे बताय सको हखुँ (मुझे क्या पता ये तो तुम्हारे दादा ही बता सकते हैं) , शाम को जब सब लोग दलान में बैठे थे , मुझे रहा नही गया झुमरी काकी के पडताल का इससे अच्छा मौका मुझे नही मिलने वाला था , सो पूछ दिया कि झुमरी काकी का क्या उमर हुआ होगा , यही ७० साल , पापा तपाक से बोले , नही ९० साल तो हुआ ही होगा राघो चचा बोले ,अरे तुम लोग को कुछ पता भी है या ऐसे ही बोलते जा रहे हो, अबकी दादा बोले थे , झुमरी का जनम तब हुआ था जब मै पैदा भी नही हुआ था , मेरे पिताजी बताते थे कि जब बंगाल बँटा था उसके ५ साल पहले ही वह भिखुआ की जोरु बनकर गाँव में आयी थी , यानि लगभग १२५ साल से भी उपर की है वो मैने सोचा ----अच्छा दादा जी ये भिखुआ कौन था और कब मरा --- मेरी दिलचस्पी बढ रही थी , भिखुआ हमारा जन था ,वह हमारा हरेक काम करता था , ऊसका बेटा था जगेसर जो अभी अपना हल जोतता है, भिखुआ शादी के १५ साल बाद ही मर गया था , मैने भी उसे नही देखा है , अच्छा दादा जी ये झुमरी काकी तो बंजारिन है , इसके पास जमीन जायदाद भी नही , सरकार इसके लिये कुछ नही करती ,हाँ कम से कम इसे वृद्धा पेंशन तो मिलनी ही चाहिये, बेटा जितना तुम सोचते हो , जितना कानुन है उतना सब कुछ पुरा हो जाये तो सबकी जिन्दगी बन जाये ------- पर हकीकत में ऐसा नही होता --- सरकार की योजनायें बस कागजों तक ही सीमित रहती है---- मै सरकारी पैसों के दुरुपयोग और सरकारी अफसरों के कर्तव्यहीनता और लोलुपता पर विचार करने लगा ----मुझे लगा कुछ तो करना चाहिये ------इस १२५ साल की काकी के लिये जिसे शायद पेट भर अनाज मिलता हो------- शेष अगले भाग में---------
शुक्रवार, 1 जुलाई 2011
रुठा - सूना संसार
रूठा - सूना संसार है ।
रूठा - सूना संसार है
रामकृष्ण की तपोभूमि यह
कर्मभूमि है गाँधी की
जो धरा सदियों से सुन्दर
राह में है बर्बादी की
रवि का तेज मंद पड़ गया
पग - पग पर अंधकार है
रूठा - सूना संसार है
धूमिल पड़ गयी माँ की ममता
सपूत कपूत हुए जग में
रक्त - पिपासे बन गए भाई
कांटे बोते परस्पर पथ में
भाई का भाई से जग में ये कैसा प्यार है
रूठा -सूना संसार है.
कितनी मांगे सूनी हो गयी
कितने गोद हुए खाली
तकती है राहे बहने
हाथो में ले राखी की थाली
संकट में है जीवन धरा पर
जकड रहा आतंकवाद है
रूठा -सूना संसार है
प्रबल हो रही लिप्साओ ने
स्थिरता पे तुषारापात किया
आगे रहने की होड़ ने
मानवता पर आघात किया
जठराग्नि में जब्त मानव अब
कण -कण को मोहताज है
रूठा - सूना संसार है
उड़ गयी अमन -शांति जहाँ से
बस रह गए गोले - बारूद यहाँ पे
सोने - चाँदी की बात कहाँ अब
यहाँ सुई को तकरार है
रूठा - सूना संसार है
फह्रेगी पताका चैन - ओ -अमन की
आज से सुन्दर कल होगा
दिल दीप जलाता है आशा का
हर पल करता मनुहार है
रूठा -सूना संसार है
हो जायेगी सुन्दर धरा
ना होगा कण -कण पे पहरा
ह्रदय मिलेंगे अपनो के तब रूठा - सूना संसार है
रामकृष्ण की तपोभूमि यह
कर्मभूमि है गाँधी की
जो धरा सदियों से सुन्दर
राह में है बर्बादी की
रवि का तेज मंद पड़ गया
पग - पग पर अंधकार है
रूठा - सूना संसार है
धूमिल पड़ गयी माँ की ममता
सपूत कपूत हुए जग में
रक्त - पिपासे बन गए भाई
कांटे बोते परस्पर पथ में
भाई का भाई से जग में ये कैसा प्यार है
रूठा -सूना संसार है.
कितनी मांगे सूनी हो गयी
कितने गोद हुए खाली
तकती है राहे बहने
हाथो में ले राखी की थाली
संकट में है जीवन धरा पर
जकड रहा आतंकवाद है
रूठा -सूना संसार है
प्रबल हो रही लिप्साओ ने
स्थिरता पे तुषारापात किया
आगे रहने की होड़ ने
मानवता पर आघात किया
जठराग्नि में जब्त मानव अब
कण -कण को मोहताज है
रूठा - सूना संसार है
उड़ गयी अमन -शांति जहाँ से
बस रह गए गोले - बारूद यहाँ पे
सोने - चाँदी की बात कहाँ अब
यहाँ सुई को तकरार है
रूठा - सूना संसार है
फह्रेगी पताका चैन - ओ -अमन की
आज से सुन्दर कल होगा
दिल दीप जलाता है आशा का
हर पल करता मनुहार है
रूठा -सूना संसार है
हो जायेगी सुन्दर धरा
ना होगा कण -कण पे पहरा
सारी दुनिया घर-बार है
फिर क्यों रूठा संसार है
फिर क्यों सूना संसार है ।
जिसको खिलते देखा हैॉ
आदिकाल के उपवन से ही जिसको खिलते देखा है
निज भाग्य उदित हुये मानव के
जिसने हर रुप बदलते देखा है
कभी जननी , कभी पालनहारा
बहाकर धरा पे प्रेम की धारा
ह्रदय तरंगों को झंकृत कर
जीवन संगिनी बनते देखा है
आदिकाल के उपवन से ही जिसको खिलते देखा है।
जन्म लिया तो बेटी हुई
कहकर लोगों से ठेठी हुई
बह गये पिता के अश्रुधार
माँ की ममता को पँहुचा आघात
गमगीन हुये संसार में भी उसको हँसते देखा है
आदिकाल के उपवन से ही जिसको खिलते देखा है।
निज भाग्य उदित हुये मानव के
जिसने हर रुप बदलते देखा है
कभी जननी , कभी पालनहारा
बहाकर धरा पे प्रेम की धारा
ह्रदय तरंगों को झंकृत कर
जीवन संगिनी बनते देखा है
आदिकाल के उपवन से ही जिसको खिलते देखा है।
जन्म लिया तो बेटी हुई
कहकर लोगों से ठेठी हुई
बह गये पिता के अश्रुधार
माँ की ममता को पँहुचा आघात
गमगीन हुये संसार में भी उसको हँसते देखा है
आदिकाल के उपवन से ही जिसको खिलते देखा है।
गुरुवार, 30 जून 2011
वह -------
वह बालों को धूप में नही सुखाती है
ना वह हँसती है, ना रोती है
ना जागती है ना सोती है
बस शून्य में निहारते हुये
वह ना जाने किस सोच में गुम रहती है
पर वह बालों को धूप में नही सुखाती है
उसका दमकता चेहरा विदीर्ण हो गया है
उसका सारा अरमान छिन्न-भिन्न हो गया है
वह बरबस आने- जाने वाले
पथिकों को निहारती है
आधी नींद में वह ना जाने किसको
पुकारती है
पर वह बालों को धूप में नही संवारती है
इतनी छोटी - सी उम्र में वह श्रिंगार नहीं करती है
बाकी सारी ज़िन्दगी उसे पहाड सी लगती है
ज़िस्म पे सफेद साडी उसके खूबसुरती को बिगाडती है
पर वह बालों को धूप में नही सवाँरती है
दर्द ही उसकी दवा है
हर किसी कि ज़ली - कटी
उसकी सज़ा है
सारी बंदिशों में रहते हुये भी
समाज की नज़रों में वह
वेवफा है
क्योंकि २५ की उम्र मे वह विधवा है
तभी तो वह समाज़ से खुद को डराती है और बालों को धूप मे नही सुखाती है
ना वह हँसती है, ना रोती है
ना जागती है ना सोती है
बस शून्य में निहारते हुये
वह ना जाने किस सोच में गुम रहती है
पर वह बालों को धूप में नही सुखाती है
उसका दमकता चेहरा विदीर्ण हो गया है
उसका सारा अरमान छिन्न-भिन्न हो गया है
वह बरबस आने- जाने वाले
पथिकों को निहारती है
आधी नींद में वह ना जाने किसको
पुकारती है
पर वह बालों को धूप में नही संवारती है
इतनी छोटी - सी उम्र में वह श्रिंगार नहीं करती है
बाकी सारी ज़िन्दगी उसे पहाड सी लगती है
ज़िस्म पे सफेद साडी उसके खूबसुरती को बिगाडती है
पर वह बालों को धूप में नही सवाँरती है
दर्द ही उसकी दवा है
हर किसी कि ज़ली - कटी
उसकी सज़ा है
सारी बंदिशों में रहते हुये भी
समाज की नज़रों में वह
वेवफा है
क्योंकि २५ की उम्र मे वह विधवा है
तभी तो वह समाज़ से खुद को डराती है और बालों को धूप मे नही सुखाती है
आघात
भीष्म द्रोण घ्रित्रास्त्र युधिस्ठिर
हो गयी सबकी बुद्धि स्थिर
मानवों की भरी सभा में
दानवता का सूत्रपात हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
अपनी - अपनी स्वार्थ थी सबकी
प्रतिष्ठा पे आंच थी सबकी
राजमोह की अन्धता में
ये कैसा ? कलंकित पाप हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
दाव लगनी थी राजपाट की
लग गयी दाव नारी जाति की
सन्न रह गए सारे दरबारी
हस्तिनापुर पे वज्रपात हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
कर जोड़ रो रही थी पांचाली
बिखरे थे बालों की डाली
चेहरा सुख गया था उसका
काले पड़ गए गालो की लाली
ये देख सरे महापुरुषों का
न उन्मत्त
जज्बात हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
बुद्धि फिर गयी दुर्योधन की
चित्त का भी हुआ विनाश
आदेश दे दुशाशन को
कर उठा परिहास
लज्जा छीन लो द्रोपदी का
कभी इससे मेरा उपहास हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
शीश झुक गए पांड्वो के तब
चीत्कार उठी सारी सभासद
महाभारत के शूरवीरों की
धरी रह गयी सारी ताकत
अर्जुन के गांडीव से न
बाणों का बरसात हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
हे! धर्मराज , मेरे अर्जुन प्यारे
गदा निपुण ओ भीम हमारे
लज्जा मेरी छीन रही है
कहाँ हो नकुल सहदेव दुलारे
हाथ जोड़ पुकारती अबला पर
न इन वीरों का दयामात्र हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
देख स्वयं की दारुण दशा
ह्रदय द्रोपदी का रो उठा
पुकार उठी सर्वप्रिय मोहन को
मन ही मन कह उठी व्यथा
सुनकर द्रोपदी का संताप
प्रभु का सभा में रास हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
दिग्गज दोल उठा मग में
अचंभित हो उठे कौरव
भीष्म द्रोण कृपाचार्य अचंभित
देख नारी की शक्ति सौरभ
प्रभु कृपा से पुनः एक बार
दानवों का मद ह्रास हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
माही सिंह (मनीष कुमार वत्स )
अधूरे सपने
सोच रहा था यु ही चलते - चलते
क्यों न करू लूँ कुछ काम
क्यों भटकता फिरता हूँ इधर - उधर
शायद जिंदगी बन जाये
आ जाये भारी-भरकम रकम
संवर जाये जीवन का सरगम
कार की छवियाँ लटकाए घूमता रहूँ
शायद बचपना आ गया था लौट के
जब होता था अक्सर मन में लटके -झटके
उदूंगा एक दिन मै भी आकाश में
हर क्षण रहूँगा इन्द्रधनुष के पास में
यु ही सोचते - सोचते कहाँ मै भटक गया
शायद जीवन ही मुझसे खटक गया
न रही आशा न विश्वाश
हर कोई गंतव्य को बढ़ गया
मै रह गया यूँ ही सोचते -सोचते
निर्विकार - निर्विरोध
पर स्वंय को खोजते-खोजते
भीड़ थी हर जगह यहाँ
पर न दिखे मेरे अपने
यूँ ही तड़पते रहे अधुरा सपने
माही सिंह (मनीष कुमार वत्स )
बाबूजी
दरवाजे पर खँखारते बूढ्ढे पर मन भिन्ना गया
होश खो रहा थ मेरा , पर याद आ गया
कि ये बाबूजी है ़।
वही बाबूजी जिनके कांधे पर बैठ कर
खेतों का चक्कर लगाया करता था
गंदा भी कर दिया था जिनके कांधे को कई बार
पर खँखार पर मन भिन्ना गया
सोचा बूढ्ढे आखिर होते क्यों है?
हम बेवजह इन्हे ढोते क्यों हैं?
मन प्रश्न किये जा रहा था पर आत्मा को
याद आ गया कि ये बाबूजी है।
वही बाबूजी जिनका अंश हुँ मै
जिनका रक्त बहता है मेरे शरीर मे
जिसने खून पसीने से सींचा है मूझे
बचपन से जवानी तक खींचा है मूझे
पर रास्ते पर पङे खँखार देखकर मन भिन्ना गया
तभी उनकी पुकार सुनकर याद आ गया
कि ये बाबूजी हैं
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