सोमवार, 1 अगस्त 2011

‍१९ बसंत

तेज रवि की रश्मि में खोली थी मैने आँखे
    देख धरा की स्वर्णिम आभा
खिल गयी थी मेरी बाँछे
बैठ प्रकृति की आँचल में
पल-पल का प्यार लिया
कभी-हँसकर तो कभी रोकर मैने
उन्नीस बसंत गुजार दिया

सुख-दुख है जीवन की माया
कहीं धुप तो कहीं छाया
क्रोध - घृणा से अनगढ मेल को
जीवन से दुत्कार दिया
कभी हँसकर तो कभी----

तृण-तृण को लडते देखा
स्वजनो को मरते देखा
हिंसा पर प्रतिहिंसा
बंधुओं को करते देखा
हृदय की व्यथित तरंगो को
प्रेम में आत्मसात किया
कभी हँसकर तो कभी----

मोह , इच्छा या लिप्सा लालसा
मन ने बनाया आत्मा को काल सा
मृगनयनी या फूलकुमारी
हृदय बसी थी राजकुमारी
मन के कामुक उमंगो को
कल्पना का उडान दिया
कभी हँसकर तो कभी -----

अमूल्य जीवन है नश्वर फिर भी
अमर रहुँगा मै मर कर भी
सह संताप हर पल , हर दम
प्रगति पथ पर रहुँगा फिर भी
उदित सुर्य की भाँति मैने
 जीवन को प्रकाश दिया
कभी हँसकर तो कभी रोकर------

हँसता हुँ कि जीवन पाया
रोता हुँ कि जग को नहीं हँसाया
हँसने रोने के अजब मेल में
जीवन को अपने बाँध लिया
कभी हँसकर तो कभी रोकर------