गुरुवार, 30 जून 2011

वह -------

वह बालों को धूप में नही सुखाती है
ना वह हँसती है, ना रोती है
ना जागती है ना सोती है
बस शून्य में निहारते हुये
वह ना जाने किस सोच में गुम रहती है
पर वह बालों को धूप में नही सुखाती है

उसका दमकता चेहरा विदीर्ण हो गया है
उसका सारा अरमान छिन्न-भिन्न हो गया है
वह बरबस आने- जाने वाले
पथिकों को निहारती है
आधी नींद में वह ना जाने किसको
पुकारती है
पर वह बालों को धूप में नही संवारती है

इतनी छोटी - सी उम्र में वह श्रिंगार नहीं करती है
बाकी सारी ज़िन्दगी उसे पहाड सी लगती है
ज़िस्म पे सफेद साडी उसके खूबसुरती को बिगाडती है
पर वह बालों को धूप में नही सवाँरती है

दर्द ही उसकी दवा है
हर किसी कि ज़ली - कटी
उसकी सज़ा है
सारी बंदिशों में रहते हुये भी
समाज की नज़रों में वह
वेवफा है
क्योंकि २५ की उम्र मे वह विधवा है
 तभी तो वह     समाज़ से खुद को डराती है                                                                                                                                                 और बालों को धूप मे नही सुखाती है

आघात


भीष्म द्रोण   घ्रित्रास्त्र  युधिस्ठिर
हो गयी सबकी बुद्धि स्थिर
मानवों की भरी सभा में
दानवता का  सूत्रपात हुआ
नारी तुम पे आघात   हुआ
अपनी - अपनी स्वार्थ थी सबकी
प्रतिष्ठा पे आंच थी सबकी
राजमोह की अन्धता में
ये कैसा ? कलंकित पाप हुआ
नारी तुम पे आघात हुआ
दाव लगनी थी राजपाट की
लग गयी दाव नारी जाति की
सन्न रह गए सारे दरबारी
हस्तिनापुर  पे वज्रपात  हुआ
नारी तुम पे आघात  हुआ
कर जोड़ रो रही थी पांचाली
बिखरे थे बालों की डाली  
चेहरा सुख गया था उसका
काले पड़ गए गालो की लाली
ये देख सरे महापुरुषों  का 
 न उन्मत्त
जज्बात हुआ  
नारी तुम पे आघात हुआ
बुद्धि फिर गयी दुर्योधन  की
चित्त का भी हुआ विनाश
आदेश दे दुशाशन को
कर उठा परिहास
लज्जा छीन लो  द्रोपदी का
कभी इससे मेरा उपहास हुआ
नारी तुम पे आघात  हुआ
शीश झुक गए पांड्वो के तब 
चीत्कार उठी सारी सभासद  
महाभारत के शूरवीरों की
धरी रह गयी सारी ताकत
अर्जुन के गांडीव से न
बाणों का  बरसात हुआ
नारी तुम पे आघात  हुआ
हे! धर्मराज , मेरे अर्जुन प्यारे 
गदा निपुण ओ भीम हमारे 
लज्जा मेरी छीन रही है 
कहाँ हो नकुल सहदेव दुलारे 
हाथ जोड़ पुकारती अबला पर 
न इन वीरों का  दयामात्र हुआ
नारी तुम पे आघात  हुआ
देख स्वयं की दारुण दशा
ह्रदय द्रोपदी का  रो उठा 
पुकार उठी सर्वप्रिय मोहन को
मन ही मन कह उठी व्यथा 
सुनकर द्रोपदी का  संताप
प्रभु का  सभा में रास हुआ 
नारी तुम पे आघात हुआ
दिग्गज दोल उठा मग में
अचंभित हो उठे कौरव 
भीष्म द्रोण कृपाचार्य अचंभित
देख नारी की शक्ति सौरभ
 प्रभु कृपा से पुनः एक बार 
दानवों का मद ह्रास हुआ 
नारी तुम पे आघात हुआ    

माही सिंह (मनीष कुमार वत्स )

अधूरे सपने


सोच रहा था यु ही चलते  - चलते
क्यों न करू लूँ कुछ काम
क्यों भटकता फिरता हूँ इधर - उधर
शायद जिंदगी बन जाये
आ जाये भारी-भरकम रकम
संवर जाये जीवन का सरगम
कार की छवियाँ लटकाए घूमता रहूँ
शायद बचपना आ गया था लौट के
जब होता था अक्सर मन में लटके -झटके
उदूंगा एक दिन मै भी आकाश में
हर क्षण रहूँगा इन्द्रधनुष के पास में
यु ही सोचते - सोचते कहाँ  मै भटक गया
शायद जीवन ही मुझसे खटक गया
न रही आशा न विश्वाश
हर कोई गंतव्य को बढ़ गया
मै रह गया यूँ ही सोचते -सोचते
निर्विकार - निर्विरोध
पर स्वंय को खोजते-खोजते
भीड़ थी हर जगह यहाँ
पर न दिखे मेरे अपने
यूँ ही तड़पते रहे अधुरा सपने
माही सिंह (मनीष कुमार वत्स )

बाबूजी


दरवाजे पर खँखारते बूढ्ढे पर मन भिन्ना गया 
होश खो रहा थ मेरा , पर याद आ गया 
कि ये बाबूजी है ‍़।
वही बाबूजी जिनके कांधे पर बैठ कर 
खेतों का चक्कर लगाया करता था 
गंदा भी कर दिया था जिनके कांधे को कई बार
पर खँखार पर मन भिन्ना गया 
सोचा बूढ्ढे आखिर होते क्यों है?
हम बेवजह इन्हे ढोते क्यों हैं?
मन प्रश्न किये जा रहा था पर आत्मा को 
याद आ गया कि ये बाबूजी  है।
वही बाबूजी जिनका अंश हुँ मै
जिनका रक्त बहता है मेरे शरीर मे
जिसने खून पसीने से सींचा है मूझे 
बचपन से जवानी तक खींचा है मूझे 
पर रास्ते पर पङे खँखार देखकर मन भिन्ना गया
तभी उनकी पुकार सुनकर याद आ गया 
कि ये बाबूजी हैं