बुधवार, 28 सितंबर 2011

राहुल राज की पुण्यतिथि पर

थी धूल से धूसरित धरा
थी  क्षीण होती रश्मियाँ 
थी प्रचंड आग में जली 
राष्ट्रवाद की बेलियाँ
था राष्ट्र तब दरक रहा 
स्वयं की फूलती थी बेलियाँ 
क्षेत्रवाद के किले में कैद होती बलियाँ 


रो रहा था भगत 
ना थम रही थी हिचकियाँ 
एक कोने में पडी थी 
आजाद की वो गोलियाँ 
ना गर्म खूँ था यहाँ अब 
ना खीचती थी पेशियाँ 
माँ भारती के मौत पे 
हो रही थी अठखेलियाँ 


स्वार्थ के इस खेल में 
था एक बाकां जवां 
जो राष्ट्र की अवधारणा का 
नव-नवीन इतिहास बना 
स्वयं टूटने के दंश से 
वह हमें बचा गया 
रक्त की स्याही लगाकर
वह हमें जगा गया


थी वो राष्ट्रभक्ति की मिसाल 
या एक राष्ट्र पर था वो सवाल 
पूछता है हृदय सदा 
पर अभी भी डरा-डरा 
है धूल से धूसरित धरा 
है क्षीण होती रश्मियाँ 
है प्रचंड आग में जली 
राष्ट्रवाद की  बेलियाँ