है देश आज मंझधार में ---
है काल में कलवित हुआ
भ्रष्ट शासन के विपद के
आङ में कुंठित हुआ
निज जहाँ है ये हमारा
प्राण प्यारा था सदा
चंद लोभियों के दहकती
गाँठ में उलझा हुआ
शायद भ्रम था हमारा
स्वयं शासन सुयोग का
पर बन गया सपना हमारा
वस्तु - दानवों के भोग का
बेच डाला इस जमीं को
चंद डालरों के मोल में
कर डाला सौदा हमारा
शादी की अपनी ढोल में
भर उठा उनका खजाना
पर हम दहलते रहे
कभी बारुद की ढेर पर तो
कभी जठराग्नि में जलते रहे
जाग जाओ ऐ। दीवानो
इस राष्ट्र के ऐ । नौजवानो
नव-विहान , नवलय का
वक्त आज आन पडा
है देश आज मंझधार में
बस तुम्हे पुकार रहा ।
मनीष कुमार वत्स "माही"
है काल में कलवित हुआ
भ्रष्ट शासन के विपद के
आङ में कुंठित हुआ
निज जहाँ है ये हमारा
प्राण प्यारा था सदा
चंद लोभियों के दहकती
गाँठ में उलझा हुआ
शायद भ्रम था हमारा
स्वयं शासन सुयोग का
पर बन गया सपना हमारा
वस्तु - दानवों के भोग का
बेच डाला इस जमीं को
चंद डालरों के मोल में
कर डाला सौदा हमारा
शादी की अपनी ढोल में
भर उठा उनका खजाना
पर हम दहलते रहे
कभी बारुद की ढेर पर तो
कभी जठराग्नि में जलते रहे
जाग जाओ ऐ। दीवानो
इस राष्ट्र के ऐ । नौजवानो
नव-विहान , नवलय का
वक्त आज आन पडा
है देश आज मंझधार में
बस तुम्हे पुकार रहा ।
मनीष कुमार वत्स "माही"
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